BA Semester-3 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण - सरल प्रश्नोत्तर समूह
लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2652
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण

अध्याय - 4
स्वप्नवासवदत्तम् (प्रथम अंक)

अनुवाद एवं व्याख्या भाग

1.
उदयेनवेन्दुसवर्णा वासवदत्ताबलौ बलस्य त्वाम्।
पद्मावतीर्णपूर्णौ बसन्तकम्रौ भुजौ पाताम्॥

सन्दर्भ - विवेच्य श्लोक संस्कृत नाटकों के प्राचीनतम नाटककार महाकवि भास विरचित 'स्वप्नवासवदत्तम' नामक नाट्यकृति के प्रथम अङ्क से उधृत है। इस ग्रन्थ के रचनाकार भास को महान नाटककार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।

प्रसंग - 'स्वप्नवासवदत्तम्' नामक नाटक के प्रारम्भ में नाटककार ने मंगलाचरण करते हुए कहा है कि -

व्याख्या - उदित होते हुए नवीन चन्द्रमा के समान रंगावली अपनी प्रिया (रेवती) को मदिरापान कराने वाली अर्थात् विशेष बलवती, श्री एवं उत्तम लक्षणों से युक्त तथा बसन्त काल के समान कमनीय बलराम की भुजाएँ आप सब की रक्षा करें।

यहाँ प्रमुख कथन यह है कि बलराम कि भुजाएँ (बलस्य) आप सब की रक्षा करें, शेष सभी इन्हीं भुजाओं के विशेषण हैं। विशेषणों में चन्द्र तुल्य शुभ्र, बलवती, श्री एवं उत्तम लक्षणा आदि हैं।

शब्दार्थ - उदये- उदय काल में, नव - नवीन, इन्दु - चन्द्रमा, सवर्णौ- समान वर्ण वाली कान्तिमती, आसव - मद्य, दत्त - देने वाली आबलो - बलवती, पद्मावतीर्णपूर्णौ पद्म अर्थात् लक्ष्मी की शोभा को प्राप्त, बसन्तकम्रौ - मधुमास के समान मनोहारी, बलस्य - बलराम की, भुजौ - दोनों भुजाएँ,   पाताम् - रक्षा करें।

काव्य दीपिका -

(क) विवेच्य श्लोक में मंगलाचरण किया गया है, क्योंकि मंगलादीनि मंगलमध्यानि मंगलान्तानि च शास्त्राणि प्रथमन्ते अर्थात् ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए मंगलाचरण आवश्यक है। 'सूचयेवस्तु बीजं व मुखं पात्रमकापिवा के अनुसार यहाँ उदयन, वासवदत्ता, पद्मावती एवं बसन्तक आदि के नामों से भी उल्लेख कर दिया गया है।

(ख) अलंकार - नाटक के प्रमुख पात्रों की सूचना दी गयी है। सूचनार्थ में 'मुद्रा' अलंकार होता है।

लक्षण - "सूच्यार्थ सूचनं मुद्रा प्रकृतार्थ परैः पदैः।'

(ग) छन्द - विवेच्य श्लोक में आर्या छन्द है।

लक्षण - यस्या पादे प्रथमे द्वादशः मान्यास्तथा तृतीयेऽपि।
   अष्टादश द्वितीये चतुर्थ के पञ्चदश सार्या।।

2.
भृत्यैर्मगधराजस्य स्निग्धैः कन्यानुगामिभिः।
धृष्टमुत्सार्यते सर्वस्तपोवनगतो जनः॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग - मगधराज की कन्या पद्मावती नामक राजकुमारी तपोवन में निवास करने वाली अपनी माता महादेवी के दर्शन के लिए आती है। वहाँ उसके सेवकगण तपोवनवासियों को उद्दण्डतापूर्वक हटाते हैं। इसी का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि -

व्याख्या - मगधराज की कन्या (पद्मावती) के पीछे-पीछे चलने वाले उनके प्रिय सेवकगण तपोवन में निवास करने वाले समस्त व्यक्तियों को अशिष्टतापूर्वक हटा रहे हैं।

तात्पर्य यह है कि राजपरिवार के अनुजीवी उद्दण्डतापूर्वक राजकुमारी का मार्ग निष्कण्टक बना रहे हैं जिससे उन्हें अपनी माता के समक्ष जाने में किसी भी प्रकार का व्यवधान न हो।

शब्दार्थ - मगधराजस्य- मगधराज की, कन्यानुगाभिः - कन्या के पीछे-पीछे चलने वाले, स्निग्धैः- प्रिय, भृत्यैः -  सेवकों के द्वारा, सर्वः -  सभी, तपोवनगतः -  आश्रमवासी, जनः- व्यक्ति धृष्टं - उद्दण्डतापूर्वक, उत्सार्यते - हटाये जा रहे हैं।

काव्य दीपिका -

(क) यहाँ राजकुमारी के प्रिय होने के कारण सेवकों द्वारा राजकुमारी के लिए मार्ग के मध्य से तपोवनवासियों को हटाने का स्वाभाविक वर्णन है। अतः स्वभावोक्ति अलंकार है।

लक्षण - स्वाभावोक्तिरसौ चारु यथावद्वस्तु वर्णनम्।

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में अनुष्टुप् छन्द है।

लक्षण -श्लोके षष्ठं गुरुज्ञेयं सर्वत्र लघुपञ्चमम्।
द्विचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥

3.
धीरस्याश्रम संश्रितस्य वसतस्तुष्टस्य वन्यैः फलै,
मानार्हस्या जनस्य वल्कलवतस्त्रासः समुत्पाद्यते।
उत्सिक्तो विनयादपेतपुरुषो भाग्यश्चलैर्विस्मितः,
कोऽयं भो निभृतं तपोवनमिदं ग्रामी करोत्या रज्ञया॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेचय श्लोक में सन्यासी का वेश धारण किये हुए यौगन्धरायण 'जोकि वत्सराज उदयन का मंत्री है वास दत्ता को साथ लेकर आश्रम में प्रवेश करता है तथा सेवकों की उद्दण्डता को सुनकर कहता है कि -

व्याख्या - धैर्यवान् आश्रम निवासी, वृक्षों की छाल के वस्त्रों को धारण करने वाले, वन्य फलों से जीविकोपार्जन करने वाले, सम्मान एवं पूजा के योग्य, तपस्यी जनों को भी भयभीत किया जा रहा है। अरे ! उद्दण्ड एवं उन विनीत सेवकों वाला तथा नाशवान धन पर अभिमान करने वाला यह कौन राजा है जो अपनी आज्ञा से इस शान्त तपोवन को भी गाँव अर्थात् अशान्त बना रहा है।

तात्पर्य यह है कि तपोवन अपेक्षाकृत कम जनसंख्या वाले होते हैं तथा वन्य सुषमा ही इसकी पहचान है तथा ग्रामीण पहचान चपलता की सूचक है। यहाँ सेवकों की उद्दण्डता से जो चपलता अथवा कोलाहल हो रहा है इसी से ग्रामीण परिवेश का संकेत किया गया है। श्लोक के पूर्वार्द्ध में

शब्दार्थ - धीर्यस्य - धैर्यवान् आश्रमसंश्रितस्य - तपोवन मे सम्यक् आश्रित, वसतः - निवास करने वाले, वल्कलवतः - वल्कल वस्त्र धारण करने वाले, वन्यैः फलैः - वन्य फलों से, तुष्टस्य - संतुष्ट रहने वाले, मानार्हस्य - सम्मान के योग्य, जनस्य त्रासः - लोगों के भय को समुत्पाद्यते- उत्पन्न कर रहा है, भो ! अरे ! उत्सिक्त उद्दण्ड विनयादयेतपुरुषः - विनय रहित व्यक्ति, चलैः भाग्यैः - चञ्चल या विनाशशील भाग्य या धनादि से, विस्मितः-  अभिमानी, अयं कः-  यह कौन है, जो, इदं - इस, निभृतं :- शान्त, तपोवनं तपोवन को, आज्ञया - अपनी आज्ञा से ग्रामी - करोति ग्राम बना रहा है।

काव्य दीपिका -

(क) विवेच्य श्लोक में आश्रम के तपस्वियों का स्वाभाविक वर्णन है अतः स्वाभावोक्ति अलंकार है।

लक्षण - स्वाभावोक्तिरसौ चारु यथावद् वस्तु वर्णनम्।

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में शार्दूल विक्रिडित छन्द है।

लक्षण - सूर्याश्वैर्मसजस्तत् सगुखः शार्दूल विक्रीडितम्।

(ग) गुण - विवेच्य श्लोक मे प्रसाद गुण है।

लक्षण - शुष्केन्धनाग्निवत् स्वच्छ जलवत् सहसेवः यः।

व्याप्रोत्यन्यत् प्रसादौडसौ सर्वत्र विहित स्थितिः॥

(घ) गुण- इस पद्य में वैदर्भी रीति है -

लक्षण - माधुर्य व्यञ्जकैः वर्णेः रचना ललितात्मिका।

आवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते।।

 

4.
पूर्वत्वयाप्यभिमतं गतमेवमासी -
च्छ्लाह्यं गमिष्यसि पुनर्विजयेन भर्तुः।
कालक्रमेण जगतः परिवर्तमाना
चक्रारपङ्क्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्तिः॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में यौगन्धरायण ने वासवदत्ता से भाग्य का वर्णन किया है, क्योंकि तपोवन में पद्मावती के सेवक तपोवनवासियों को जब मार्ग से हटाते हैं तो इससे वासवदत्ता व्यथित होकर यौगन्धरायण से पूछती है कि क्या मुझे भी हटाया जायेगा? तभी यौगन्धरायण कहता है कि-

व्याख्या - पहले आप भी इसी प्रकार इच्छानुसार भ्रमण करती थीं और अपने पति उदयन की विजय होने पर पुनः उसी भाँति सेवकों से प्रशंसित होकर चलेंगी, क्योंकि समय के फेर से बदलने वाली भाग्य रेखा या भाग्य दशा रथ के पहिये के समान ऊपर-नीचे होती रहती है।

तात्पर्य यह है कि मनुष्यों की भाग्य दशा में पहिये के अरोकी भाँति उत्थान एवं पतन होता है क्योंकि वही वासवदत्ता उदयन की महारानी थी जो आज स्वेच्छा से तपस्विनी बन गयी है। यह भाग्य की ही गति है। दैवगति या दैवयोग इसी को कहते हैं।

शब्दार्थ - पूर्व- पहले, त्वयाऽपि - तुम्हारे द्वारा भी एव - इसी प्रकार अभिमता स्वेच्छापूर्वक, गतमासीत् - गमन किया जाता है, पुनः - फिर से, भर्तुः पति के विजयेन - विजय से श्लाहयं - प्रशंसनीय, गमिष्यसि - चलोगी, कालक्रमेण - समय के क्रम से परिवर्तमाना परिवर्तनशील, जगतः -  जगत् की, भाग्यपंक्ति - भाग्य दशा, चक्रारपङ्कितरिव रथ के चक्र के समान, गच्छति - चलती है।

काव्य दीपिका -

(क) विवेच्य श्लोक में विशिष्ट कथन का सामान्य कथन से समर्थन किया गया है अतः यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है -

लक्षण - सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते।
यत्रु सोऽर्थान्तरन्यासः साधम्येणैतरेण वा।।

(ख) छन्द - इस पद्य में वसन्ततिलका छन्द है।

लक्षण - उक्ता वसन्ततिलका तथणा जगौगः॥

(ग) गुण - विवेच्य श्लोक में प्रसाद गुण है।

लक्षण - पूर्ववत्।

(घ) रीति - वैदर्भी।

लक्षण - पूर्ववत्।

5.
परिहरतु भवान् नृपापवादं,
न परुषमाश्रयवासिषु प्रयोज्यम्।
नगर परिभवान् विमोक्तुमेते
वनमथिगम्य मनस्विनो वसन्ति।
सन्दर्भ पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में कञ्चुकी सेवकगणों से वनवासियों को हटाने का निषेध करते हुए कहता है कि -

व्याख्या - तुम सब राजा की निन्दा को दूर करो। तुम्हें आश्रमवासियों से कठोर वचन नहीं कहने चाहिए, क्योंकि ये स्वाभिमानी तपस्वीजन नगरों में होने वाले तिरस्कारों से बचने के लिए वन में आकर रह रहे हैं।

तात्पर्य यह है कि नगरीय सभ्यता तथा वहाँ व्यक्ति की स्वेच्छाचारिता को सहन न करके तपोवन में आकर तपस्वी शान्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं अतः इनसे किसी भी प्रकार की उद्दण्डता नहीं करनी चाहिए। वस्तुतः तपस्वीजन स्वाभिमानी होते हैं और स्वाभिमान पर घात होने से वे शाप भी दे सकते हैं।

शब्दार्थ - भवान् - आप, नृपापवादं- राजा की निन्दा, परिहरतु- दूर कीजिए, आश्रमवासिषु - आश्रमवासियों के प्रति, परुषं - कठोर, न प्रयोज्यम् - नहीं प्रयोग करना चाहिए, एते- ये, मनस्विनः - स्वाभिमानी, नगरपरिभवान् - नगर के परिभव से विमोक्तुं मुक्त होने के लिए, वनमभिगम्य- वन आकर, वसन्ति - निवास करते हैं।

काव्य दीपिका -

(क) अलंकार - विवेच्य श्लोक में काव्यलिङ्ग अलंकार है।

लक्षण - हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्ग निगद्यते।

(ख) छन्द - इस श्लोक में पुष्पिताग्रा छन्द है।

लक्षण - अयुजि न युगरेफतो यकारो
युजि च नजौ जगराश्च पुष्पिताग्रा।।

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति - वैदर्भी।

6.
प्रद्वेषो वा बहुमानो वा संकल्पादुपजायते।
भर्तृतदाराभिषित्वादस्यां मे महती स्वता॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - जब पद्मावती नामक मगध की राजकुमारी आश्रम में प्रवेश करती है तो यौगन्धरायण उन्हें उदयन की भावी पत्नी समझकर उनके प्रति आत्मीय हो जाता है। वह मन ही मन विचार करता है कि -

व्याख्या - बैर या आदर मानसिक भावों से उत्पन्न होते हैं। यही कारण है कि स्वामी की पत्नी बनने की इच्छा के कारण इस पद्मावती से मुझे अत्यन्त आत्मीयता हो रही है।

तात्पर्य यह है कि ज्योतिषियों की घोषणा के अनुसार वर्तमान मगधराज की बहन पद्मावती वत्सराज उदयन की पत्नी बनेगी तो यौगन्धरायण जोकि उदयन का अति प्रिय मंत्री है उसके मन में पद्मावती के प्रति आदर भाव जाग्रत हो जाता है, क्योंकि आदर एवं द्वेष मानसिक क्रियाएँ हैं। इनका जन्म एवं नाश मन की स्वयं की गति पर निर्भर करता है व्यक्ति इनको साधारण रूप से प्रभावित नहीं कर सकता है।

शब्दार्थ - प्रदेषंवा - विद्वेष अथवा बहुमानः - सम्मान, संकल्पात्- संकल्प से (मन से). उपाजायते - उत्पन्न होते हैं, भर्तदाराभिलाषित्वात्- यह स्वामी की पत्नी होगी इस अभिलाषा से, अस्यां - इसके प्रति में महती स्वता - मेरे मन मे आत्मीयता का भाव हो गया है।

काव्य दीपिका -

(क) अलंकार - यहाँ सामान्य कथन का विशेष से समर्थन है अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है।

लक्षण -  सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते।
यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्येणैत रेणवा।।

(ख) छन्द -  अनुष्टुप छन्द विवेच्य श्लोक में है।

लक्षण - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।
द्विचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति - वैदर्भी।

7.
कस्यार्थ : क्लेशेन को मृग्यते वासो यथा निश्चितं।
दीक्षां पारितवान् किमिच्छतिपुनर्देयं गुरोर्यद् भवेत्।
आत्मानुग्रहमिच्छतीह नृपणा धर्माभिरामप्रिया।
यद्यस्यास्ति समीप्सितं वदतुतत् कस्याद्यकिं दीपताम्॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में यह वर्णन किया गया है कि जब पद्मावती तपोवन में प्रवेश करके अपनी माता से मिलने जाती है तो वह तपस्वियों को आवश्यकतानुसार वस्तुओं का दान करना चाहती है। उसी के आदेशानुसार कञ्चुकी यह घोषणा करता है कि -

व्याख्या - किसे कमण्डल की आवश्यकता है? कौन वस्त्र खोज रहा है? विधिवत् शिक्षा ग्रहण कर लेने वाला दक्षिणास्वरूप गुरुवर को कौन शिष्य क्या देना चाह रहा है? धार्मिक व्यक्तियों से प्रेम करने वाली राजकुमारी इस तपोवन में आकर अपने ऊपर आप का अनुग्रह चाहती है अतः जिसको जो भी अभीष्ट हो वह बताए कि उसे राजकुमारी से क्या चाहिए।

तात्पर्य यह है कि पद्मावती जितनी सुन्दर तन अथवा शरीर से है उसकी उतनी ही मानसिक एवं बौद्धिक सुन्दरता भी है। वह तपस्वियों के सम्बन्ध में जानती है कि ये व्यक्ति मात्र जन-कल्याण करते हैं और शिष्यों से भी अपेक्षा नहीं करते हैं। साधनों के अभाव में ही जीवन व्यतीत करना इनकी चर्या है। अतः वह आवश्यकतानुसार साधनों की पूर्ति की घोषणा कर देती है। यही कारण है कि वह धर्मप्रिया भी कहलाती है।

शब्दार्थ -  तपस्वीजनस्य - तपस्वीजन के लिए, कस्य कलशेन अर्थः - कलश के लिए किसे आवश्यकता है, कः वासः मृगयते - किसे वस्त्र चाहिए. यथानिश्चिंत दीक्षां दीक्षा के लिए पारितवान् पुनः - समाप्त करने वाला, किमिच्छति - क्या चाहता है, यत् - जो, गुरोः - गुरु के दयं - देने के लिए, भवेत् - चाहिए, धर्माभिरामप्रिया - धर्मप्रिया, नृपजा - राजकुमारी, आत्मानुग्रहमिच्छन्ति - आत्मीयता की इच्छा रखती है, यस्य - जिसके लिए, यत् - जो. समीप्सितम् - इच्छित हो, तद् वह, वदतु कह दे, अद्य - आज, कस्य - किसको, किं- क्या दीयताम् दिया जाये।

काव्य दीपिका-

(क) अलंकार - विवेच्य श्लोक में आश्रम में निवास करने वाले तपस्वीजनों की स्वाभाविक आवश्यकताओं का वर्णन है अतः स्वभावोक्ति अलंकार है।

लक्षण - स्वाभावोक्तिरसौ चारु यथावद्वस्तु वर्णनम्॥

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में 'शार्दूलविक्रीडितम् छन्द है।

"सूर्यश्वैर्मजस्तताः समुखः शार्दूलविक्रीडितम्॥'

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति- वैदर्भी।

(ङ) विवेच्य श्लोक में शिष्य द्वारा गुरु को दक्षिणा देने का भी वर्णन है।

आचार्य मनु ने भी कहा है कि स्रनास्यैस्तु गरुणा ज्ञाप्तः शक्तता गुरुर्वर्थमहरेत् अर्थात् यदि शिष्य के पास कुछ भी न हो तो भी उसे गुरु को एक नारियल एवं यज्ञोपवीत का जोड़ा अवश्य देना चाहिए।

8.
कार्य नैवार्थेर्नापि भोगैर्न वस्त्रौ नहं काषायं वृत्तिहेतोः प्रपन्नः।
धीरा कन्येयं दृष्ट धर्म प्रचारा शक्ता चारित्रं रक्षितुं में भगिन्याः॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में यौगन्धरायण तपस्वी वेष में राजकुमारी पद्मावती से याचना करता है, क्योंकि उन्होंने यह घोषणा करायी थी कि जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता हो, माँग ले। अतः उचित अवसर पाकर मंत्री यौगन्धरायण तपस्वी वेष में कहता है कि -

व्याख्या - न तो मुझे धन-सम्पत्ति से कोई प्रयोजन है और न ही मुझे सांसारिक सुखों से एवं न ही वस्त्रों की आवश्यकता है, न मैंने आजीविका के निमित्त परिव्राजक या संन्यासी का वस्त्र धारण किया है किन्तु मगधराज सुता पद्मावती विदुषी तथा धर्मप्रिया है वह मेरी बहन की रक्षा कर सकती है। अतः मेरी यह ही प्रार्थना है।

तात्पर्य यह है कि कञ्चुकी सभी से आवश्यकताएँ पूछता है तो यौगन्धरायण कहता है कि मुझे सांसारिक सुख, धन-धान्य, वस्त्र आदि की आवश्यकता नहीं है और मैंने आजाविका के लिए संन्यासियों के वस्त्र भी नहीं पहने हैं। आप विदुषी हैं अर्थात् पद्मावती विदुषी हैं वह मेरी बहन की चरित्र की रक्षा कर सकती हैं। वस्तुतः वासवदत्ता भी तपस्विनी वेष में है अतः उसकी रक्षा का सर्वोत्तम अवसर देखकर यौगन्धरायण कहता है कि आप मेरी इस धरोहर की रक्षा कीजिए यही आपसे प्रार्थना है।

शब्दार्थ- नैव- न ही, अर्थैः - धन से, नापिभोगैः - न भोगों से, न वस्त्रैः -  न वस्त्रों- से, कार्यम् - प्रयोजन है, नाहं- न मैंने, वृत्तिहेतो:- आजीविका के निमित्त, काषायं - गेरुआ प्रपन्नः- धारण किया है, इयं कन्या - यह कन्या अर्थात् पद्मावती, धीराः- धैर्यवती या विदुषी, धर्मप्रचारा - धर्मप्रिया मे - मेरी, भगिन्याः - बहन की, चारित्रु - चरित्र की रक्षितुं - रक्षा के लिए, समर्थ समर्थ है।

काव्य दीपिका -

(क) अलंकार - विवेच्य श्लोक में न्यास रक्षण की पद्मावती में क्षमता का समर्थन किया गया है। अतः यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है।

लक्षण - सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते
यन्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्येणैतरेण वा।।

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में वैश्वदेवी नामक छन्द है।

लक्षण - 'पञ्चाश्वैश्छिन्ना वैश्व देवी मामौयौ।

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति - वैदर्भी।

9.
पादाक्रान्तानि पुष्पाणि सोष्म चेदं भिलातलम्।
नूनं कचिदिहासीना मां दृष्ट्वा सहसा मता।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - जब राजा उदयन एवं वसन्तक नामक विदूषक मगधराज के यहाँ भ्रमण करते हैं तो उद्यान में शिलातट एवं पुष्पों की स्थिति देखकर कुछ अनुमान करते हुए वत्सराज उदयन मित्र वसन्तक से कहते हैं कि -

व्याख्या - पैरों से दबे हुए या मुर्झाये हुए पुष्प एवं इस शिलापट की ऊष्मा को देखकर प्रतीत होता है कि निश्चित रूप से यहाँ कोई बैठी हुई स्त्री हमें आता देखकर शीघ्रता के साथ उठकर चली गयी है।

तात्पर्य यह है कि उद्यान में राजा उदयन एवं वसन्तक का प्रवेश प्रवेशद्वार से ही हुआ है। राजा को यह पूर्व में ही आभास हो गया है कि मुझको इस ओर आता देखकर कोई स्त्री इसे छोड़कर तत्काल चली गयी। इसकी पुष्टि गरम शिला एवं पुष्पश्य्या भी करती है। वस्तुतः यह राजा की दूरदर्शिता का परिणाम है।

शब्दार्थ - पुष्पादि - पुष्पं, पदक्रान्तानि -पैरों से आक्रान्ति है, च - और इदेभिलासतम् - यह शिलातल, सोजम - ऊष्मा से युक्त है, नूनम् - निश्चय ही काचित् - कोई स्त्री, इह यहाँ, आजीना - आसीन थी, माँ - मुझको, दृष्ट्वा- देखकर, सहसा - शीघ्रता से, गता - चली गयी।

काव्य दीपिका -

(क) अलंकार- विवेच्य श्लोक में राजा के अनुमान का हेतु गरम शिलातल एवं दबे हुए पुष्प हैं अतः हेतु से साध्य का ज्ञान होने से अनुमान अलंकार है।

लक्षण - अनुमानं तु विच्छित्या ज्ञानं साध्यस्य साधनात्।

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में अनुष्टुप छन्द है।

लक्षण - श्लोक षष्ठ गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पड्चमम्।
द्विचतुष्पादयोर्हस्वयं सप्तमं दीर्घ मन्ययोः॥

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति- वैदर्भी।

10.
पद्मावती नरपतेर्महिषी भवित्री
दृष्टा विपत्तिस्थ यैः प्रथमं प्रदिष्टा।
तत्प्रत्ययात् कृतमिदं न हि सिद्ध वाक्या-
- न्युत्क्रम्य गच्छति विधिः सुपरीक्षितानि॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - यौगन्धरायण ने वासवदत्ता को राजकुमारी पद्मावती के समीप न्यास रूप में रख दिया। वह मन ही मन अपनी योजना को साकार देखते हुए सोचता है कि अब उदयन महाराज की भावी पत्नी पद्मावती ही इसकी चरित्र बुद्धि के बारे में साक्षिणी होंगी-

व्याख्या - जिन पुष्पक भद्रादि ज्योतिषियों ने उदयन की राज्यहानि रूप विपत्ति को पहले ही सूचित किया था उन्होंने ही बाद में यह भविष्यवाणी की थी कि 'पद्मावती उदयन की पटरानी होंगी। उन्हीं के वचनों पर अब विश्वास करके मैंने यह कार्य किया है, क्योंकि भवितव्यता भली प्रकार परखे सिद्धों सहुए के वचनों का उल्लंघन करके नहीं चलती है।

तात्पर्य यह है कि ऋषियों की वाणी थी कि उदयन के राज्य पर संकट आयेगा जो आया। उन्होंने ही यह भविष्यवाणी भी की थी कि पद्मावती उदयन की पटरानी बनेंगी यही सोचकर यौगन्धरायण ने वासवदत्ता को इसके समीप न्यास रूप में रखा है, क्योंकि ऋषियों की वाणी को होनी भी टाल नहीं पाती है।

शब्दार्थ- यै: पुष्पकभद्र आदि सिद्धों के द्वारा प्रथमं - पहले, विपत्तिः दृष्टा - विपत्ति का दर्शन किया गया, अथ - अब, पद्मावती - मगधराज सुता, नरपतेः - उदयन की, महिषी - पटरानी, भवित्री - होंगी, प्रदिष्टा - कहा है तत्प्रत्ययात् - इन्हीं सिद्धों के आदेश से या इनके विश्वास से, इदं कृतम् - ऐसा किया है, हि - क्योंकि, सुपरीक्षितानि- सह्य की परीक्षा करने वाले, सिद्धवाक्यानि - सिद्धों के वाक्यों को, उत्क्रम्य - उल्लंघन करके, न गच्छति न जाती है।

काव्य दीपिका -

(क) अलंकार- विवेच्य श्लोक में हेतु के साभिप्राय होने से अर्थात् वासवदत्ता को न्यास रूप में रखने का प्रयोजन है अतः काव्यलिङ्ग अलंकार है।

 

लक्षण - 'हेतोर्वाक्य पदार्थत्वे काव्यलिङ्ग निगद्यते।

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में वसन्ततिलका छन्द है।

लक्षण - उक्त वसन्ततिलका तभजाजगौगः।

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति- वैदर्भी।

11.
विस्रब्धं हरिणाश्चन्त्यचकिता देशागत प्रत्यया
वृक्षा: पुष्पफलैः समृद्धविटपाः सर्वोदया रक्षिताः।
भूयिष्ठं कपिलानि गोकुलधनान्यक्षेत्रवत्यो दिशो
निः सन्दिग्धमिदं तपोवनमयं धूमोहि बह्वाश्रयः॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में पद्मावती जब तपोवन में रहती है तो उसी समय मध्याह्न के समय ब्रह्मचारी का प्रवेश होता है। वह तपोवन होने की स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है कि

व्याख्या - तपोवन का प्रान्त होने के कारण यहाँ हरिण निश्चिन्त होकर विचरण कर रहे हैं, दया भाव एवं स्नेह से अभिसञ्जित सभी वृक्षों की डालियाँ, पुष्प, फलों से परिपूर्ण हैं। कपिला गायों के समूह भी पर्याप्त मात्रा में विचरणशील हैं तथा इसके सीमान्त क्षेत्र में कृषि नहीं हो रही है तथा विविध हवन आदि सुगन्धित द्रव्यों के परिपूर्ण धूम्र चतुर्दिक व्याप्त है। अतः निःसन्देह यह तपोवन है।

विवेच्य श्लोक में आश्रम के वातावरण के सुगन्धित होने से तथा जीवों पर दया के कारण उनकी निश्चिन्त विचरणशीलता से 'अहिंसा परमो धर्मः' की व्यञ्जना है। इसमें वृक्षों के प्रति अपार श्रद्धा एवं प्रेम का भाव भरा है। दुग्धादि से परिपूर्ण तथा जिसका दर्शन ही शुभ कारक होता है ऐसी कपिला गायों के समूह विचरण कर रहे हैं तथा आस-पास की भूमि कृषिरहित होने से आश्रम या तपोवन को पहचानने में सन्देह नहीं होता है।

शब्दार्थ - देशागत प्रत्यया - विश्वास से युक्त प्रदेश को प्राप्त, हरिणा - हरिण, अचकिता निर्भय होकर, विसन्धः - निश्चिन्त होकर, चरन्ति - विचरण करते हैं, दयारक्षिता - दया से रक्षित है, सर्वे - सभी, वृक्षाः -  वृक्ष, पुष्पफलैः - पुष्प एवं फलों से, समृद्धविटपाः -  शाखाएँ परिपूर्ण हैं, कपिलानि - कुछ पीली गायें, गोकुल धनानि - गायों के धन से युक्त, भूयिष्ठम् - परिपूर्ण है, दिशो चारों दिशाएँ, अक्षेलवत्या - कृषि से हीन है, अयं - यह, वहवाश्रयः -  प्रचुर मात्रा में धूमः- धुआँ है, निःसन्दिग्धं - निःसन्देह, इदम् - यह, तपोवनं तपोवन हैं।

 

काव्य- दीपिका -

(क) अलंकार - यहाँ आश्रम का स्वाभाविक वर्णन है अतः यह स्वभावोक्ति अलंकार है।

लक्षण - स्वाभावोक्तिरसौ चारु यथावद्वस्तु वर्णनम्।

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में शार्दूलविक्रीडितम् छन्द है।

लक्षण - सूर्याश्वैर्मतजस्तताः सगुखः शार्दूलविक्रीडितम्।

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति - वैदर्भी।

पुष्पफलैः - पुष्पैः च फलैः इति द्वन्द्व समासः।
कपिलानि - कडारः कपिलः पिंग पिशगौ इत्यमरः।
अक्षेयवत्य - अञ् + क्षेत्र + मतुव्।

12.
नैवेदानीं तादृशाश्चक्रवाका
नैवाप्यन्ते स्त्री विशेष वियुक्ताः।
धन्या सा स्त्री यां तथा वेत्ति भर्ता
भर्तृस्नेहात् सा हि दम्धारयदम्धा॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में वत्सराज उदयन के राज्य का एक ब्रह्मचारी तपोवन में प्रवेश करता है, वहीं पर वह तपस्वी वेशधारी यौगन्धरायण से पदमावती आदि सभी जनों की उपस्थिति में वार्तालाप करता है और वासवदत्ता की मृत्यु को सुनकर महाराज उदयन की दशा का वर्णन करते हुए कहता है -

व्याख्या - इस समय चकवों की वैसी दशा नहीं है और न ही उनके समान कोई स्त्री - वियोगी व्यक्ति रह गया है। वह स्त्री धन्य है जिसे उसका उस भाँति अत्यन्त प्रिय मानता है। वस्तुतः वह वासवदत्ता जल जाने पर भी पति स्नेह के कारण जली नहीं है अर्थात् आज भी जीवित है।

तात्पर्य यह है कि वासवदत्ता उदयन को बहुत ही प्रिय थी। इस पद्य में भास ने प्रेम का आदर्श प्रस्तुत किया है। वासवदत्ता के वियोग में उदयन की विरह वेदना की अभिव्यक्ति यह व्यञ्जित करती है कि प्रेम गरिमामयी था। वस्तुतः पति का स्नेह स्त्री को जीवित रखता है। स्त्री के लिए सबसे बड़ा सौभाग्य यही है।

शब्दार्थ - इदानीं - इस समय तादृशाः - उदयन के समान, चक्रवाकाः- चक्रवाक पक्षी, नैव - निश्चित ही नहीं है, स्त्री विशेषैः -  विशेष स्त्रियों के वियोग से, वियुक्ताः - विरह वेदना से युक्त, तादृशा - उदयन के समान, नैव- नहीं है, सा स्त्री धन्या - वह स्त्री धन्य है, यां - जिसको, भर्ता - पति, तथात्ति - उस प्रकार मानता है, हि- क्योंकि, सा - वह, दग्धापि - जलकर भी, भर्तृस्नेहात् - पति स्नेह के कारण, अदग्धा- जली नहीं है अर्थात् जीवित है।

काव्य दीपिका -

(क) अलंकार- जब प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बनाया जाय या उपमान उपमेय बन जाये तो प्रतीप अलंकार होता है। यहाँ चक्रवाक आदि पक्षी उपमेय रूप में प्रयुक्त हैं अतः प्रतीप अलंकार है।

लक्षण - प्रसिद्ध स्योयमानस्योपमेयत्व प्रकल्पनम्।
निष्फल त्वाभिधानं वा प्रतीपमिति कथ्यते॥

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में शालिनी छन्द है।

लक्षण - मात्तौ गौचेत् शालिनी वेदलोकैः।

(ग) गुण - प्रसाद।

(घ) रीति- वैदर्भी।

(ङ) धन्या सा स्त्री यां तथा वेत्तिभर्ता यह सूक्ति विथि पर भारतीय संस्कृति एवं स्त्री के प्रति पति निष्ठा की व्यञ्जना प्रस्तुत करती है।

13.
सविश्रमो ह्यं भारः प्रसक्तस्तस्य तुं श्रमः।
तस्मिन् सर्वमधीनं हि यत्राधीनो नराधिपः॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में 'राजा की दयनीय दशा एवं मन्त्री रूमण्वान् की दशा सुनने के पश्चात् ' मंत्री यौगन्धरायण रूमण्वान् की स्वामिभक्ति पर मन ही मन सन्तोष व्यक्त करता हुआ सोचता है कि

व्याख्या - मेरा यह भार तो कुछ कम हो गया है किन्तु रूमण्वान् का भार और भी अधिक हो गया है क्योंकि राजा जिसके अधीन होता है, राज्य सम्बन्धी सारा क्रियाकलाप भी उसी के अधीन रहा करता है।

तात्पर्य यह है कि यौगन्धरायण ने वासवदत्ता को पदमावती के समीप धरोहर के रूप में सौंप दिया है जिससे यौगन्धरायण सोचता है कि उसका वासवदत्ता सम्बन्धी भार तो कुछ कम हो गया है किन्तु वह सोचता है कि इस प्रकार रूमण्वान् का भार बढ़ गया है। रूमण्वान् राजा उदयन का मंत्री है। यौगन्धरायण राजा उदयन का प्रधानमंत्री था किन्तु उसकी अनुपस्थिति में इस समय रूमण्वान् ही सारा राज्य - भार देख रहा है। वस्तुतः जो मंत्री राजा का प्रधान होता है उसी के अधीन राज्य का भार निरन्तर रहा करता है।

शब्दार्थ- हि - क्योंकि या निश्चित रूप से, अयं- यह वासवदत्ता सम्बन्धी, भार: - भार, सविश्रामः - कुछ कम हो गया है, तु किन्तु तस्य उस रुमण्वान् का, श्रमः - भार, प्रसक्तः - अधिक हो गया है, नराधिपः- राजा, यत्राधानः - जिसके अधीन होता है, सर्व- सब कुछ तस्मिन् - उसी के अधीनम् -अधीन होता है।

काव्य-दीपिका -

(क) अलंकार - इस पद्य में सामान्य द्वारा विशेष का समर्थन है अतः यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है।

लक्षण - सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते।
यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साद्यर्म्येणैतरेण वा।।

(ख) छन्द- विवेच्य श्लोक में अनुष्टुप छन्द है।

लक्षण - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।
द्विचतुष्पादयोः हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥

(ग) गुण- प्रसाद।

(घ) रीति- वैदर्भी।

14.
खगा वासोपेताः सलिलमबगाढो मुनिजनः।
प्रदीप्तोऽग्निर्भाति प्रविचरति धूमो मुनिवनम्।
परिभ्रष्टो दूराद् रविरपि च संक्षिप्त किरणो,
रथं व्यावर्त्यासौ प्रविशति शनैरस्तशिखरम्॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में कञ्चुकी सायंकाल का वर्णन करता हुआ कहता है कि-

व्याख्या - पक्षी अपने-अपने निवास स्थल अर्थात् घोंसलों में चले गये हैं, मुनिजन स्थान के निमित्त जल में प्रविष्ट होने लगे हैं, सांध्योपासन के लिए यज्ञीयाग्नि प्रज्ज्वलित होकर चमक रही है, तपोवन में चारों ओर धुआँ फैल रहा है, तथा सुन्दर आकाश से आवृत्त यह भानु भी अपनी किरणों को संरक्षित करता हुआ अपने रथ को लौटाकर धीरे-धीरे अस्ताचल में प्रवेश कर रहा है।

तात्पर्य यह है कि सूर्य का रथ सप्ताश्वौ वाला है। वह सायंकाल के समय अपनी रश्मियों को समेटता हुआ अस्ताचल की ओर गतिमान हो गया है। सूर्य के आस्ताचल की ओर जाने से सांध्यकालीन क्रियाएँ प्रारम्भ हो गयी हैं जैसे- पक्षी अपने- अपने घोंसलों में लौटने लगे हैं, मुनिजन नदी-सरोवर आदि में स्नान करने लगे हैं, सांध्योपासन के लिए यज्ञीय अग्नि जलने लगी है, तथा अग्नि प्रज्वलन से तपोवन धूम्रवान् हो रहा है। इस प्रकार सायंकाल की लालिमा विशेष रूप से अपना श्रांगारिक एवं आलंकारिक सौन्दर्य प्रकट कर रही है।

शब्दार्थ - खगाः - पक्षी, वासः - निवास में, घोंसलों में, उवेता - जा रहे हैं या जा चुके हैं, सलिलमवगाढो मुनिजन - मुनिगण जल में स्नान कर रहे हैं, प्रदीप्त जलती हुई, अग्निर्भाति - अग्नि सुशोभित हो रही है, प्रविचरति - फैल रहा है, धूमो -धूम्र, मुनिवरम् -तपोवन में, दूरात्- दूर से, रविरपि -  सूर्य भी परिभ्रष्टो गिरा हुआ, संक्षिप्त, किरणों - किरणों को समेटता हुआ, रथंरथ को, व्यावर्त्यासौ - यह लौटाकर, प्रविशति जा रहा है, शनैः शनैः - धीरे-धीरे, अस्त शिखरम् - अस्तांचल की ओर।

काव्य-दीपिका-
(क) अलंकार - आश्रम का स्वाभाविक वर्णन होने के कारण विवेच्य श्लोक में स्वभावोक्ति नामक अलंकार है।

लक्षण - स्वभावोक्तिरसौ चारु यथावद्वस्तु वर्णनम्।

(ख) छन्द - विवेच्य श्लोक में भिखारिणी छन्द है।

लक्षण - रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमन सभला गः भिखारिणी।

(ग) गुण प्रसाद।
 
(घ) रीति वैदर्भी।

(ङ) जहाँ पर नाटक के अङ्कान्त में सभी पात्र चले जाते हैं वहाँ पर 'अडू' नामक नाट्य होता है।

लक्षण - अन्तनिष्क्रान्त निखिल पायोडंक इति कीर्तितः।
उपर्युक्त श्लोक के पश्चात् सभी पात्र चले जाते हैं अतः अङ्क नामक नाट्य इस नाटक का अंग है।

संस्कृत अनुवाद एवं व्याख्या भाग

1.
भृत्यैर्मगंधराजस्य स्निग्धैः कन्यानुगामिथिः।
धृष्टमुत्सार्यते सर्वस्तपोवनगतो जनः॥

सन्दर्भ - विवेच्य श्लोकः संस्कृत नाटकेषु प्राचीनतम नाटककार : महाकविभास विरचितः 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाट्य ग्रन्थस्य प्रथम अङ्कात् उद्धृतोऽस्ति। अस्या नाट्यकृतेः रचनाकारस्य भासस्य सर्वश्रेष्ठ कृतिः अयंध्नाटकमस्ति।

प्रसंग - मगधराज दर्शकस्य कन्या पद्मावती अस्ति। सा एकदा तपोवने स्वमाता मेलनं आगच्छति। तस्मिन् समये तस्या सेवकैः तपस्वि जनाः उत्सार्यन्ते। सूत्रधारः कथयति यत् -

अन्वय - मगधराजस्य कन्या नुगमिथिः स्निग्धैः भृत्यैः सर्वः तपोवनगतः जनः धृष्टं उत्सार्यन्ते।

अनुवाद - मगध देशाधीश्वरस्य दर्शकस्य कुमार्याः पद्मावत्याः परिचारिकैः स्नेहपूर्णैः सेवकैः भटैर्वा सकल बाल वृद्धादिः आश्रमस्थः तापसलोकः धृष्टतापूर्वकं उद्धतं वा दूरी क्रियन्ते।

अर्थात् पद्मावत्याः सेवकैः आश्रमवासी उद्दण्डतापूर्वकं मार्गात् उत्सार्यन्ते। अयं कार्य वस्तुतः उचितं नास्ति।

दीपिका -

(क) अलंकार- कुमार्याः उपस्थिते सेवकानां इदं कार्य स्वाभोविकमस्ति अस्मात् कारणात् स्वाभावोक्ति अलंकारः अस्ति-

 

लक्षणम् - स्वभावोक्ति रसौचारुमथावद् वस्तु वर्णनम्।

(ख) छन्द:- अनुष्टुप् वृत्तम् अस्ति।

लक्षणम् - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।
द्वि चतुष्पादयोर्हस्वं दीर्घं सप्तमन्ययोः॥ :

(ग) गुणः - प्रसाद।

लक्षणम् - शुष्केन्धनाग्नि वत् स्वच्छ जलवत् सहसैवयः।
व्याप्नोत्यन्यत् प्रसादोऽसौ सर्वत्रविहित स्थितिः।

(घ) रीति:- वैदर्भी।

माधुर्य व्यञ्जकैः वर्णैः रचना ललितात्मिका।
आवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीति रिष्यते॥

2.
प्रद्वेषो बहुमानो वा संकल्पादुपजायते।

भर्तृदाराथिलाषित्वादस्यां मे महती स्वता॥

सन्दर्भ पूर्ववत्।

प्रसंग - यदा पद्मावती मगधराजसुता आश्रमे प्रविशति तदाः उदयनस्य प्रधानमंत्री यौगन्धरायणः पद्मावती उदयनस्य भावी पत्नी ज्ञात्वा मनसैव विचारयति -

अनुवाद - वैरातिशय अत्यादरः वा मानसात् क्रमणैव उपजायते स्वामिनः उदयनस्य दारा पद्मावति भविष्यति अस्मात् कारणात् पद्मावत्यं महती स्वता आत्मीयता अस्ति।

अर्थात् पद्मावत्यां मम कोऽपि रुचिर्नास्ति किन्तु भविष्यं वक्तैः उक्तवा यत् पद्मावती महाराज उदयस्य पत्नी भविष्यति अस्मात् कारणात् मे हृदये पद्मावतीं प्रति आदर भाव उत्पन्नं भवति। सा मम कृते आत्मीयाऽस्ति।

काव्य दीपिका -

(क) अलंङ्कार - श्लोकेऽस्मिन् अर्थान्तरन्यासालङ्कारोस्ति।

लक्षणम् - सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येत् समर्थ्यते।
यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्येणैतरेण वा।।

(ख) छन्द:- अनुष्टुप् वृत्तम्। लक्षणं पूर्वे अस्ति।

(ग) गुणः प्रसाद। लक्षणं पूर्वे अस्ति। (घ) संकल्पात् (संकल्पः कर्ममानसम् तस्मात्)

3.
सविश्रमो ह्यं भारः प्रशक्तस्तस्य तु श्रमः।
तस्मिन् सर्वमधीनं हि यत्राधीनो नराधिपः॥

सन्दर्भ पूर्ववत्।

प्रसंग - यदा यौगन्धरायणं महाराज उदयनस्य दयनीय दशायाः मंत्री रूमण्वानः च दयनीय दशायाः ज्ञानं भवति तदा यौगन्धरायणः विचारयति यत् रुमण्वान् स्वामिभक्तः अस्ति। सः मनसि चिन्तयति

अनुवाद - निश्चयेन अयं वासवदत्ता रक्षणरूपः मदीयः भारः विरामेण सहितः संजातः किन्तु तस्य रूमण्यवानः श्रमः अर्थात् भूपतिः उदयन रक्षणरूपः परिश्रमः प्रकृष्टरूपेण समवस्थित तथाहि यास्मिन्नायतः सकलं राजकीयं कार्यजातं आधीनं भवति अथवा यों मन्त्री राजा परिपालन रूपं महदभारं उदवहति तमधीनो राजा भवति।

अर्थात् यः मन्त्री राज्य कार्यं करोति सः राज्ञः स्वामी अपि च भवति। तथाहि राजा राज्यस्य स्वामी तु भवति किन्तु राज्य कार्य मन्त्र्यधीनो भवति। मन्त्री एवं राज्यकर्म सम्बन्धी स्वामी भवति। यः मन्त्री राज्य कार्य करोति सैव राज्ञः स्वामीऽपि भवति। अस्मिन समये रूमण्वानेव वत्सदेशस्य वास्तविक स्वामी अस्ति।

काव्य दीपिका -

(क) अलंकार श्लोकेऽस्मिन् अर्थान्तरन्यासः अलंकारोस्ति

लक्षणम् - सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येत् समर्थ्यते।
यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्येणैतरेण वा।।

(ख) छन्द अनुष्टुप् वृत्तम्।

(ग) गुण:- प्रसाद।

(घ) रीति वैदर्भी।

(ङ) नराधिपः- नराणां अधिपः (ष0 त0) (च) सविश्रमः विश्रमेण सहितः।

4.
पादाक्रान्ति पुष्पाणि सोष्यं चेदं शिलातलम्।
नूनं कचिदिहासीना मां दृष्ट्वा सहसा गता।।

-

अन्वयः - पुष्पाणि पादाक्रान्तानि च इरं शिलातलं सोष्म।
नूनं काचित् इह आसीना मां दृष्ट्वा सहसा गता।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - यदा राजा उदयनः मित्र वसन्तकेन सह मगधराजस्य उद्याने परिभ्रमणं करोति तदा उद्याने शिलापटं पुष्पाणि च दृष्ट्वा सः अनुमानं करोति यत् -

अनुवाद - (मित्र वसन्तक !) कुसुमानि चरणैः दलितानि वर्तन्ते इदं पुरः स्थितं शिलातलं ऊष्मा युक्ति मस्ति अतः निश्चयेन अत्र उपविष्टा काचित् स्त्री माम् दृष्ट्वा झटितियाता।

अर्थात् यदा राजा उदयनः विदूषकेन सह उद्याने आगच्छति तदा पुष्पाणि व्यस्ताः भवन्ति शिलातटं ऊष्मा युक्तं च भवति अतः उदयनः कथयति मित्र ! अस्मिन् शिलातले काचित् स्त्री आसीना तथाहि इदं शिलातटं ऊष्मा युक्तमस्ति अतः सा माम् दृष्ट्वा त्वरितेन गता।

काव्य दीपिका-

(क) अलंकार - श्लोकेऽस्मिन् अनुमानालङ्कारोऽस्ति।

लक्षणम् - अनुमानं तु विच्छित्या ज्ञानं साध्य साधनात्।

(ख) अनुष्टुप् वृत्तम्।

(ग) गुणः - प्रसाद।(घ) रीति वैदर्भी।

सूक्ति व्याख्या

 

1.
'अनिर्ज्ञातानि दैवतान्यवधूयन्ते।

सन्दर्भ - विवेच्य सूक्ति रत्न संस्कृत नाट्य साहित्य के प्रथम रचनाकार, महाकवि भास विरचित 'स्वप्नवासवदत्तम्' के प्रथम अङ्क से उद्धृत है। छः अंकों वाले इस नाटक में नाट्यकला की कमनीयता विद्यमान है। यह नाटक भास का सर्वश्रेष्ठ नाटक रत्न है।

प्रसंग - जब मगधराज सुता पद्मावती अपनी माता से मिलने के लिए तपोवन जाती हैं तो वहाँ सभी व्यक्तियों को मार्ग से हटाया जाता है। वासवदत्ता जो उदयन की पत्नी है' यौगन्धरायण से पूछती हैं कि क्या मुझे भी हटाया जायेगा? तो वह विवेच्य सूक्ति के माध्यम से कहता है कि -

व्याख्या - परिचित न होने पर तो देवता भी अपमानित हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अपना सम्मान प्राप्त करने के लिए गुणों की आवश्यकता होती है। व्यक्ति की पहचान उसके गुणों पर ही निर्भर होती है अतः व्यक्ति को अपने वास्तविक रूप में रहने पर स्वतः सम्मान प्राप्त होता है। वासवदत्ता एक महारानी हैं अतः वह सम्मान के योग्य हैं किन्तु वह आश्रम में एक साधारण स्त्री की भाँति हैं। यदि वह अपने वास्तविक रूप में आ जाये तो यौगन्धरायण द्वारा राज्य की समृद्धि के निमित्त बनाया गया सारा समीकरण ही ध्वस्त हो जायेगा। अतः व्यक्ति की उचित पहचान न हो तो उसे परिस्थितियों से समझौता करना ही पड़ता है।

2.
कालक्रमेण जगतः परिवर्तमाना
चक्रारपङ्क्तिरिव गच्छति भाग्यपङ्क्तिः॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग - जब पद्मावती अर्थात् मगध की राजकुमारी आश्रम में जाती है तो वहाँ के मार्ग से सभी व्यक्तियों को हटाया जा रहा है। इसी क्रम में साधारण वेश में वासवदत्ता भी यौगन्धरायण से कहती है कि क्या ऐसा ही अपमान मुझे भी सहन करना होगा? महारानी वासवदत्ता के प्रश्न का उत्तर देते हुए यौगन्धरायण कहते हैं कि -

व्याख्या - कालक्रम से परिवर्तनशील भाग्यदशा रूपी रथ को पहियों के समान चलाती है।

तात्पर्य यह है कि यौगन्धरायण महारानी वासवदत्ता से कहता है कि महारानी रहते समय आप भी अपनी इच्छानुसार चला करती थीं और पति उदयन के पुनः राज्य प्राप्त कर लेने पर आप भी पुनः उसी प्रकार चलेंगी। महारानी जी भाग्य दशा तो निरन्तर परिवर्तनशील है जो प्रतिक्षण-प्रतिपल परिवर्तित होती रहती है। यह रथ के पहिये की गति होती है, कभी वह ऊपर की ओर आता है कभी वह नीचे जाता है। उसी प्रकार भाग्य की भी गति है जो कभी व्यक्ति को उत्कर्ष प्रदान करती है और कभी व्यक्ति को नीचे की ओर ले जाती हैं। भाग्य की गति विचित्र होती है। कहा भी गया है -

'भाग्यं फलति सर्वत्र न विधा न तोप्रधनम्'।

और भी कहा गया है -

मनुज बली नहिं होत है समय होत बलवान्।

काव्य दीपिका विवेच्य पंक्ति में काल की गति की तुलना रथ के पहिये से की गयी है, अतः यहाँ उपमा अलंकार है

लक्षण - प्रस्फुटं सुन्दरं साम्यमुपमेत्यभिधीयते।

महाकवि कालिदास ने भी ऐसा ही साम्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि -

'नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।'

3.
'न परुषमाश्रमवासिषु प्रयोज्यम्'।
'मेघदूतम्'

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग - जब मगधराज सुता पद्मावती अपनी माता से मिलने के लिए आश्रम में आती हैं तो वहाँ उनके सेवकगण बलपूर्वक आश्रम मार्ग से आश्रमवासियों को हटाते हैं। उसके इस आचरण पर दुःख प्रकट करते हुए पद्मावती का काञ्चुकीय कहता है कि

व्याख्या आश्रमवासियों के प्रति कठोर वचन नहीं कहने चाहिए। हे मगध के सेवकों तुम्हें राज- निन्दा नहीं करनी चाहिए। तुम्हारे इस प्रकार के आचरण निश्चय ही राज्य एवं राजा की निन्दा होगी, क्योंकि आश्रम के तपस्वियों से कठोर वचनों को नहीं कहना चाहिए। वह कारण बताता हुआ कहता है कि ये आश्रम में निवास करने वाले साधुजन अत्यन्त स्वाभिमानी होते हैं। वे नगरों में होने वाले तिरस्कारों से बचने के लिए वन में आकर रहते हैं। वस्तुतः स्वाभिमान साधुजनों का प्रमुख धन है। वे इसी मनस्विता के कारण ही शहर या नगर का परित्याग कर शान्त आश्रम में शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। आश्रमवासियों के प्रति कठोर वचनों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि साधुजन तीर्थ के रूप में होते हैं। कहा गया है कि -

साधुदर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः।
कालेन फलते तीर्थम् सद्य साधु समागमः॥

और कहा गया है -

अनुबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यति क्रमः॥

4.
तथा परिश्रमः परिखेदं नोत्पादयति यथाऽयं परिभवः।

सन्दर्भ पूर्ववत्।

प्रसंग - जब राजकुमारी पद्मावती तपोवन में अपनी माता से मिलने के लिए आती है तो उस समय तपोवन के मार्ग में आने वाले सभी जनों को बाहर किया जाता है उसी समय ब्राह्मण वेश में यौगन्धरायण महारानी वासवदत्ता के साथ आश्रम में रहता है, वासवदत्ता भी अपने वेश को बदलकर रहती है। वह यौगन्धरायण से कहती है कि

व्याख्या - थकावट अथवा परिश्रम मुझे उतना पीड़ित नहीं कर रहा है जितनी पीड़ा इस अपमान से हो रही है।

तात्पर्य यह है कि वासवदत्ता उज्जयिनी नरेश प्रद्योत की कन्या है और वह वत्सराज उदयन की महारानी है किन्तु राज्य एवं पति के उत्थान के लिए स्वयं एवं मंत्री यौगन्धरायण को मृत घोषित करवा देती है और यह दोनों भाई-बहन के रूप में आश्रम मे चले आते हैं और जब पद्मावती आश्रम में आकर व्यक्तियों को हटाती है अर्थात् पदमावती के सेवकों के द्वारा तपोवनवासी मार्ग से हटाये जाते हैं तो वासवदत्ता को भी यहाँ पर मार्ग से हटना पड़ता है तो वह मंत्री यौगन्धरायण से अन्ततः कह ही देती है कि हे आर्य! मुझे जितनी पीड़ा पैदल चलकर नहीं हुई है उससे ज्यादा पीड़ा इस अपमान से हो रही है। वस्तुतः एक राजरानी होने के कारण उसका यह पीड़ाविषयक कथन अत्यन्त उचित है क्योंकि वह भी स्वाभिमानिनी है और स्वाभिमान की रक्षा एवं पति के साथ-साथ राज्य के उत्थान के लिए यह सब उसने किया है।

काव्य दीपिका -

विवेच्य सूक्ति में अनुप्रास अलंकार की झलक है।

लक्षण - अनुप्रासः वर्ण साम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्ययत्।

5.
तपोवनानि नाम अतिथिजनस्य स्वगेहम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - जब पद्मावती अपनी माता से मिलने के निमित्त तपोवन जाती है तो वहाँ के सभी तपस्वियों की सभी आवश्यकताएँ भी वह पूर्ण करने की घोषणा करती है। जब तपस्वियों से वह मिलती है तो एक तपस्वनी उससे कहती है कि

व्याख्या - तपोवन तो अतिथि का अपना घर होता है। तात्पर्य यह है कि तपोवन में वही व्यक्ति निवास करते हैं जो प्रायः संसार से विरत होते हैं। सांसारिक सुखों को विस्मृत कर निष्काम भाव से भगवद्भजन में तल्लीन रहने वाले व्यक्ति आश्रम की शोभा को बढ़ाते हैं और वे आश्रम में आने वाले अतिथि का बहुत सत्कार करते हैं। वस्तुतः तपोवन अतिथियों का स्वयं का ही घर होता है, क्योंकि अतिथि सत्कार के लिए शीतल जल, मधुर वाणी एवं कुश का आसन आवश्यक माना गया है। यह वस्तुएँ आश्रम में होती हैं। अतिथि सत्कार की महिमा का मण्डन करते हुए कठोपनिषद् में कहा गया है कि -

वेश्वानरः प्रविशति अतिथि ब्राह्मणो गृहान्।
तस्येतां शान्ति कुर्वन्ति वैवश्वत ! हरोदकम्॥
आशा प्रतीक्षे संगतं सुनृतां च
इष्टापूर्ति पुत्रपभूञ्चसर्वान्।
एतद्वृते पुरुषस्याल्पमेघसे
यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणोगृहान्॥

अतः तपोवन में अतिथि सत्कार भी होता है, क्योंकि यह उनका स्वयं का घर है यहाँ निवास करने के लिए किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है।

6.
प्रद्वेषो बहुमानो वा संकल्पादुपजायते।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग - जब वासवदत्ता एवं मंत्री यौगन्धरायण की मृत्यु का समाचार राजा को प्राप्त हो जाता है तो यौगन्धरायण वासवदत्ता के साथ तपोवन में आता है जहाँ उनका साक्षात्कार पदमावती से होता है। मगधराज सुता पद्मावती को देखकर प्रद्योत पुत्री वासवदत्ता के मन में एक आदर का भाव जाग्रत होता है क्योंकि विद्वानों की भविष्यवाणी के अनुसार पद्मावती राजा उदयन की पत्नी होंगी। वासवदत्ता का कथन है कि मुझे यह बहिन के समान प्रिय है। यौगन्धरायण भी ऐसा ही कहते हैं कि-

व्याख्या - बैर अर्थात् द्वेष अथवा आदर मानसिक भावों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए स्वामी की पत्नी बनाने की इच्छा से पद्मावती में मुझे आत्मीयता का अनुभव हो रहा है।

वस्तुतः उदयन के मन में पद्मावती के प्रति जो आदर भाव उत्पन्न हुआ है वह स्वाभाविक ही है, क्योंकि वह राज्य के कल्याण के लिए यह षड्यंत्र कर रहा है कि उसकी तथा वासवदत्ता की मृत्यु हो गयी है और जब वह स्वामी उदयन की पत्नी बनेंगी तो मेरे लिए महारानी होंगी अतः मुझे इनमें आत्मीयता के दर्शन होते हैं। संसार का भी यही नियम है। संसार में असंख्य व्यक्ति होते हैं। सभी मानव है और मानवता के कारण सभी में स्नेह होना चाहिए किन्तु व्यावहारिक रूप से ऐसा देखने को नहीं मिलता है। मानव-मानव का शत्रु हो जाता है किन्तु जहाँ मन का योग मन से हो जाता है वहाँ आत्मीयता का अटूट बन्धन बंध जाता है जो कभी नहीं टूटता है। ऐसा ही मंत्री यौगन्धरायण के साथ हुआ है क्योंकि वह राजा उदयन का सच्चा सेवक या मंत्री है। मन की गति के सम्बन्ध में भी कहा गया है -

दूरस्थोऽपि समीपस्थः यो यस्य मनसि स्थितिः।
समीपस्थोऽपि दूरस्थः यो यस्य हृदये न च॥

7.
दुखं न्यासस्य रक्षणम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - पद्मावती का काञ्चुकीय अर्थात् सेवक यह उद्घोषणा करता है कि इस तपोवन में जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता हो वह राजकुमारी पद्मावती से आकर कहे। कमण्डल, वस्त्र, दक्षिणा हेतु धन आदि जिसकी भी आवश्यकता हो वह आकर ले जाये, क्योंकि धार्मिक जनों से प्रेम करने वाली राजकुमारी इन वनवासियों का स्वयं पर अनुग्रह चाहती है। इसी क्रम में यौगन्धरायण याचना करता है कि उसकी बहन को धरोहर के रूप में पद्मावती अपने पास रखें और जब मुझे आवश्यकता होगी मैं इसे ले जाऊँगा, तो सेवक कहता है कि

व्याख्या - धरोहर की रक्षा करना अत्यन्त कठिन है। वस्तुतः किसी भी व्यक्ति को धन देना, वस्त्र, दान, गोधन, रत्नादि देना अत्यन्त सरल है क्योंकि ये वस्तुएँ हैं जो दान कर देने पर अपने अधिकार से दूर हो जाती हैं और ग्रहीत करने वाला व्यक्ति इसका स्वामी बन जाता है। किसी व्यक्ति के लिए प्राणों की आहुति देना भी सरल है, तपस्या द्वारा अर्जित किया गया फल यदि दे दिया जाये तो भी वह सरल है तथा संसार के सम्पूर्ण सुखों का परित्याग कर देना सरल है, क्योंकि इन सभी वस्तुओं का त्याग कर देने पर किसी भी व्यक्ति पर किसी प्रकार का आरोप या दोषारोपण नहीं होता है जबकि सर्वाधिक कठिन कार्य इस संसार में किसी के धरोहर की रक्षा करना है क्योंकि इसकी रक्षा एवं अरक्षा दोनों में ही दोषारोपण की संभावना रहती है। इस सम्बन्ध में एक लोकोक्ति प्रचलित है -

'पर धन जोगवै गूरुख नाथ'

अतः धरोहर की रक्षा करना अत्यन्त कठिन कार्य है।

8.
सर्वजन साधारणमाश्रम पदं नाम।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - लावाणक ग्राम में अग्नि की घटना हो जाने पर उसमें वासवदत्ता एवं यौगन्धरायण के जल जाने के समाचार से आहत महाराज उदयन भी अपने प्राणों के त्याग का विचार करते हैं यह कथन वहीं से आया। एक ब्रह्मचारी तपोवन को देखकर जब उसमें प्रवेश करना चाहता है तो पदमावती का सेवक कहता है कि -

व्याख्या - आश्रम तो सर्वसाधारण होता है अर्थात् आश्रम एक ऐसा स्थल है, जहाँ सभी व्यक्ति बिना किसी झिझक के स्वेच्छा से निवास कर सकते हैं। आश्रम में प्रवेश करने के लिए किसी की आज्ञा की भी आवश्यकता नहीं होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र अपने-अपने जीवन का गृहस्थ काल व्यतीत कर अपने जीवन के अन्तिम चरण में संन्यास आश्रम में प्रवेश करते हैं। यह आश्रम व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कराता है।

आश्रम मात्र तपस्या के द्वारा भगवद् प्राप्ति ही नहीं कराते हैं अपितु इनके ब्रह्मचारियों को उचित शिक्षा भी प्रदान की जाती है। व्यक्ति प्रारम्भिक काल में अर्थात् उपनयन संस्कार के बाद गुरु की शरण में आकर शिक्षा ग्रहण करता है और वह शिक्षा तपोवन में ही प्राप्त होती है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में आश्रमों का विशेष महत्व था। इसी कारण इसे सर्वसाधारण का घर भी कहा जाता है -

'तपोवनानि नाम अतिथिजनस्य स्वगेहम्।

काव्य दीपिका-

सर्वसाधारणम् सभी साधारण व्यक्तियों के प्रवेश हेतु स्थल विशेष आश्रम कहलाता है। सर्वसाधारण से अर्थ यह है कि यहाँ आगन्तुक भी बिना भेद-भाव के प्रवेश करते हैं। यहाँ ब्रह्मचारी को स्त्रियों को देखकर भी संकोच नहीं करना चाहिए।

9.
तस्मिन् सर्वमधीनं हि यत्राधीनो नराधियः।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग - लावाणक नामक ग्राम में जब मंत्री यौगन्धरायण के जल जाने की सूचना राजा उदयन को प्राप्त होती है तो उसका दुःख और बढ़ जाता है, क्योंकि वह वासवदत्ता के जलने की सूचना से आहत था ही। अब उसके राज्य में मंत्री का पद रिक्त हो गया जिसे रूमण्यवान् नामक अन्य मन्त्री ने सम्भाला है। वह ही राजा की सेवा इस समय कर रहा है। ब्रह्मचारी जब उस रूमण्यवान की भी उदयन के साथ दयनीय स्थिति का वर्णन करता है तो यौगन्धरायण कहता है कि -

व्याख्या - क्योंकि राजा जिसके अधीन होता है, राज्य सम्बन्धी सारे क्रियाकलाप भी उसी के अधीन रहते हैं। यौगन्धरायण कहता है कि इस समय मेरा भार तो कम हो गया है किन्तु रूमण्यवान् का भार और बढ़ गया है। तात्पर्य यह है कि जब यौगन्धरायण की मृत्यु की सूचना चतुर्दिक फैल जाती है तो राजा उदयन रूमण्यवान् को ही मंत्री पद पर नियुक्त करते हैं। यौगन्धरायण राजा उदयन का प्रधानमंत्री था वह अत्यन्त चतुर, दक्ष, नीतिज्ञ एवं उत्साही व्यक्ति था। वह कुशल राज्य संचालक भी था किन्तु अब जब वह राज्य से बाहर है तो उसने ब्रह्मचारी से सुना कि उदयन के दुख में दुखी रूमण्यवान् भी राजा उदयन के समान अत्यन्त दयनीय स्थिति में है। राजा जिस मंत्री के बल पर कार्य करता है वह ही राज्य का सच्चा संचालक होता है। वस्तुतः मंत्री राजा की भक्ति है। मंत्री बुद्धिजीवी व्यक्ति ही होता है अतः मंत्री का उत्तरदायित्व राज्य के सम्बन्ध में राजा से कम नहीं होता है। इसलिए मंत्री को सदैव राजा को उचित मंत्रणा ही देनी चाहिए।

 

काव्य दीपिका -

(क) हि - हि हेताववधारणे' से हि का प्रयोग अवधारण अर्थ में है।

(ख) नराधिपः - नराणां अधिपः (ष0 त0) 'राजा'।

10.
न हि सिद्ध वाक्यान्युत्क्रम्य गच्छति विधिः सुपरीक्षितानि।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग - जब लावाणक नामक ग्राम में अग्निकाण्ड होता है तो मंत्री यौगन्धरायण महारानी वासवदत्ता के साथ गुप्त रूप से निकल आता है और राज्य में सूचना प्रसारित कर दी जाती है कि वासवदत्ता को बचाने में मंत्री यौगन्धरायण भी जल गये। इधर यौगन्धरायण राज्य कल्याण के लिए ज्योतिषियों की वाणी पर विश्वास कर बहन वासवदत्ता को उसी के पास धरोहर के रूप में रखने के लिए उद्यत होते हैं और अन्ततः निर्णय लेते हुए कहते हैं कि -

व्याख्या - क्योंकि भवितव्यता भली प्रकार परखे हुए सिद्ध पुरुषों के वचनों का उल्लंघन करके नहीं चलती। जिन पुष्पक भद्र आदि ज्योतिषियों में उदयन की राज्य हानि रूपी विपत्ति को पहले सूचित किया था उन्होंने ही बाद में यह भी घोषणा की थी कि पद्मावती राजा उदयन की पटरानी बनेगी। उन्हीं ज्योतिषियों के वचनों पर विश्वास करके मैंने वासवदत्ता को पद्मावती के ही समीप रखने का निर्णय लिया है।

वस्तुतः सिद्ध पुरुषों की वाणी का उल्लंघन करने में नियति या भवितव्यता समर्थ नहीं है। वस्तुतः सिद्ध अर्थात् आप्त-वचन को शब्द प्रमाण कहा जाता है। परमात्मा का साक्षात्कार करने वाले जन साक्षात् ब्रह्म होते हैं और ब्रह्म वाक्य सदैव सत्य ही होते हैं। उनमें किसी भी प्रकार के दोष की सम्भावना नहीं रहती है।

काव्य दीपिका -

(क) 'हि' - 'हि हेताववधारणे' के अनुसार हि अवधारण अर्थ में प्रयुक्त है।

(ख) महाकवि भवभूति ने भी अपने नाटक उत्तररामचरितम् में कहा है कि -

लौकिकानां हि साधूनामर्थं वागनुवर्तते।
वीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति॥

11.
"धन्या सा स्त्री यां तथा वेत्ति भर्ता,
भर्तृस्नेहात् सा हि दग्धाऽप्यदग्धा॥'

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोकांश महाकवि भास द्वारा विरचित 'स्वप्नवासवदत्तम्' नामक नाटक के प्रथम अंक से उद्धृत है।

प्रसंग - इस श्लोक में वत्सराज उदयन के राज्य का एक ब्रह्मचारी तपोवन में प्रवेश करता है। वहीं पर तपस्वी वेशधारी यौगन्धरायण से पद्मावती सभी से वार्तालाप करता है और वासवदत्ता की मृत्यु को सुनकर महाराज उदयन की दशा का वर्णन करता है।

व्याख्या - वह स्त्री धन्य है जिसे उसका पति अत्यन्त प्रिय मानता है। वास्तव में वह वासवदत्ता जल जाने पर भी पति स्नेह के कारण जली नहीं है, अर्थात् आज भी जीवित है। अर्थात् पति का स्नेह स्त्री को जीवित रखता है। स्त्री के लिए सबसे बड़ा सौभाग्य यही है।

...पीछे | आगे....

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- भास का काल निर्धारण कीजिये।
  2. प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  4. प्रश्न- अश्वघोष के जीवन परिचय का वर्णन कीजिए।
  5. प्रश्न- अश्वघोष के व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष की कृतियों का उल्लेख कीजिए।
  7. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के काव्य की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  8. प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
  9. प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य कला की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- "कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते" इस कथन की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  11. प्रश्न- महाकवि भट्ट नारायण का परिचय देकर वेणी संहार नाटक की समीक्षा कीजिए।
  12. प्रश्न- भट्टनारायण की नाट्यशास्त्रीय समीक्षा कीजिए।
  13. प्रश्न- भट्टनारायण की शैली पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
  14. प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त के जीवन काल की विस्तृत समीक्षा कीजिए।
  15. प्रश्न- महाकवि भास के नाटकों के नाम बताइए।
  16. प्रश्न- भास को अग्नि का मित्र क्यों कहते हैं?
  17. प्रश्न- 'भासो हास:' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
  18. प्रश्न- भास संस्कृत में प्रथम एकांकी नाटक लेखक हैं?
  19. प्रश्न- क्या भास ने 'पताका-स्थानक' का सुन्दर प्रयोग किया है?
  20. प्रश्न- भास के द्वारा रचित नाटकों में, रचनाकार के रूप में क्या मतभेद है?
  21. प्रश्न- महाकवि अश्वघोष के चित्रण में पुण्य का निरूपण कीजिए।
  22. प्रश्न- अश्वघोष की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
  23. प्रश्न- अश्वघोष के स्थितिकाल की विवेचना कीजिए।
  24. प्रश्न- अश्वघोष महावैयाकरण थे - उनके काव्य के आधार पर सिद्ध कीजिए।
  25. प्रश्न- 'अश्वघोष की रचनाओं में काव्य और दर्शन का समन्वय है' इस कथन की समीक्षा कीजिए।
  26. प्रश्न- 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- भवभूति की रचनाओं के नाम बताइए।
  28. प्रश्न- भवभूति का सबसे प्रिय छन्द कौन-सा है?
  29. प्रश्न- उत्तररामचरित के रचयिता का नाम भवभूति क्यों पड़ा?
  30. प्रश्न- 'उत्तरेरामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  31. प्रश्न- महाकवि भवभूति के प्रकृति-चित्रण पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- वेणीसंहार नाटक के रचयिता कौन हैं?
  33. प्रश्न- भट्टनारायण कृत वेणीसंहार नाटक का प्रमुख रस कौन-सा है?
  34. प्रश्न- क्या अभिनय की दृष्टि से वेणीसंहार सफल नाटक है?
  35. प्रश्न- भट्टनारायण की जाति एवं पाण्डित्य पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  36. प्रश्न- भट्टनारायण एवं वेणीसंहार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  37. प्रश्न- महाकवि विशाखदत्त का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  38. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का रचयिता कौन है?
  39. प्रश्न- विखाखदत्त के नाटक का नाम 'मुद्राराक्षस' क्यों पड़ा?
  40. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का नायक कौन है?
  41. प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटकीय विधान की दृष्टि से सफल है या नहीं?
  42. प्रश्न- मुद्राराक्षस में कुल कितने अंक हैं?
  43. प्रश्न- निम्नलिखित पद्यों का सप्रसंग हिन्दी अनुवाद कीजिए तथा टिप्पणी लिखिए -
  44. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
  45. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए।
  46. प्रश्न- "वैदर्भी कालिदास की रसपेशलता का प्राण है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  47. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के नाम का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी सार्थकता सिद्ध कीजिए।
  48. प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य की सर्थकता सिद्ध कीजिए।
  49. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् को लक्ष्यकर महाकवि कालिदास की शैली का निरूपण कीजिए।
  50. प्रश्न- महाकवि कालिदास के स्थितिकाल पर प्रकाश डालिए।
  51. प्रश्न- 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के नाम की व्युत्पत्ति बतलाइये।
  52. प्रश्न- 'वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालिदासो विशिष्यते। इस कथन की दृष्टि से कालिदास के रचना वैशिष्टय पर प्रकाश डालिए।
  53. अध्याय - 3 अभिज्ञानशाकुन्तलम (अंक 3 से 4) अनुवाद तथा टिप्पणी
  54. प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
  55. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए -
  56. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के प्रधान नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  57. प्रश्न- शकुन्तला के चरित्र-चित्रण में महाकवि ने अपनी कल्पना शक्ति का सदुपयोग किया है
  58. प्रश्न- प्रियम्वदा और अनसूया के चरित्र की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए।
  59. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् में चित्रित विदूषक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  60. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूलकथा वस्तु के स्रोत पर प्रकाश डालते हुए उसमें कवि के द्वारा किये गये परिवर्तनों की समीक्षा कीजिए।
  61. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रधान रस की सोदाहरण मीमांसा कीजिए।
  62. प्रश्न- महाकवि कालिदास के प्रकृति चित्रण की समीक्षा शाकुन्तलम् के आलोक में कीजिए।
  63. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- शकुन्तला के सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  65. प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् का कथासार लिखिए।
  66. प्रश्न- 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' इस उक्ति के अनुसार 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की रम्यता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
  67. अध्याय - 4 स्वप्नवासवदत्तम् (प्रथम अंक) अनुवाद एवं व्याख्या भाग
  68. प्रश्न- भाषा का काल निर्धारण कीजिये।
  69. प्रश्न- नाटक किसे कहते हैं? विस्तारपूर्वक बताइये।
  70. प्रश्न- नाटकों की उत्पत्ति एवं विकास क्रम पर टिप्पणी लिखिये।
  71. प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
  72. प्रश्न- 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाटक की साहित्यिक समीक्षा कीजिए।
  73. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर भास की भाषा शैली का वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के अनुसार प्रकृति का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- महाराज उद्यन का चरित्र चित्रण कीजिए।
  76. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् नाटक की नायिका कौन है?
  77. प्रश्न- राजा उदयन किस कोटि के नायक हैं?
  78. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर पद्मावती की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  79. प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  80. प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के प्रथम अंक का सार संक्षेप में लिखिए।
  81. प्रश्न- यौगन्धरायण का वासवदत्ता को उदयन से छिपाने का क्या कारण था? स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- 'काले-काले छिद्यन्ते रुह्यते च' उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  83. प्रश्न- "दुःख न्यासस्य रक्षणम्" का क्या तात्पर्य है?
  84. प्रश्न- निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए : -
  85. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिये (रूपसिद्धि सामान्य परिचय अजन्तप्रकरण) -
  86. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिये।
  87. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (अजन्तप्रकरण - स्त्रीलिङ्ग - रमा, सर्वा, मति। नपुंसकलिङ्ग - ज्ञान, वारि।)
  88. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
  89. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्त प्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - I - पुल्लिंग इदम् राजन्, तद्, अस्मद्, युष्मद्, किम् )।
  90. प्रश्न- निम्नलिखित रूपों की सिद्धि कीजिए -
  91. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्तप्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - II - स्त्रीलिंग - किम्, अप्, इदम्) ।
  93. प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूप सिद्धि कीजिए - (पहले किम् की रूपमाला रखें)

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book